रविवार, 14 नवंबर 2010

राजनीति के प्रकार

हमारा देश एक राजनीति प्रधान देश है, पहले यह गांव प्रधान हुआ करता था। अब राजनीति केवल सत्ताधारी नेता या विपक्ष के नेता ही नहीं करते बल्कि साधारण लोग भी इसमें माहिर होने लगे हैं। घर हो या आफिस हर जगह राजनीति हावी है। घर में सास की बहू से तो बहू की सास से राजनीति; आफिस में आगे बढ़ने के लिए अपने सहयोगियों से राजनीति, जमीन जायदाद हड़पने के लिए अपने सगे संबंधियों से राजनीति, मोहल्ले में अपना रूतबा कायम रखने के लिए पड़ोसियों से राजनीति, कालेज में लड़कियों को इंप्रेस करने के लिए दोस्तों को नीचा दिखाने की राजनीति होना अब आम बात हो गई है। यहां पर हर प्रकार की राजनीति होती है। कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि अगर किसी ने राजनीति नहीं सीखी तो उसका जीना ही मुश्किल है। इसलिए हर मां शादी से पहले अपनी बेटी को ‘किस तरह ससुराल में पति को अलग करना है, ससुराल में कैसे बंटवारा करवाना है‘ सिखा-पढ़ाकर भेजती है। इसलिए जिन लोगों अभी तक राजनीति नहीं सीख पाई है, वो नीचे लिखे राजनीति के पांच प्रकारों को आज से ही प्रयोग करना शुरू कर दें-चापलूस राजनीति: इस प्रकार की राजनीति सभी जगह इस्तेमाल की जा सकती है। आफिस में कर्मचारी अपने बॉस की, राजनीतिक पार्टी में आम कार्यकर्ता अपने पार्टी अध्यक्ष की और घर में बहू अपनी सास की चापलूसी कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। इसके लिए अगर अपने बॉस के तलुवे भी चाटने पड़े तो भी हिचकिचना नहीं चाहिए। बॉस अगर कहे दिन तो दिन, रात कहे तो रात। बॉस की हां में हां मिलना बहुत जरूरी है। सच्चा चापलूस बनने के लिए अपने आफिस के काम से ज्यादा बॉस के घर का काम अधिक महत्वपूर्ण होता है। आप अपनी जरूरी फाइल अधूरी छोड़कर बॉस के घर के लिए सब्जी ला सकते हैं, उनकी पत्नी को शॉपिंग करा सकते हैं, बिजली-फोन आदि का बिल भर सकते हैं...।ओछी राजनीति: यह राजनीति बहुत मारक होती है। इस राजनीति के तहत आपको अपने प्रतिद्वंद्वी कर्मचारी की गलतियां बॉस को दिखानी रहती हैं। इसी के साथ अपने बॉस की झूठी तारीफ बार-बार करनी रहती है। इससे बॉस खुश रहते हैं और आपके प्रमोशन के चांस बढ़ जाते हैं। इस प्रकार की राजनीति को बहू अपनी सास पर भी अपना सकती हैं।सोची राजनीति: ऐसी राजनीति करने के लिए काफी सूझबूझ की जरूरत होती है। इसमें अपने प्रतिद्वंद्वी की राह में हमेशा रोड़े अटकाते रहना पड़ता है। उसकी बुराइयों पर नमक-मिर्च डालकर बॉस को बताते रहना पड़ता है। कुछ ऐसी साजिश करनी पड़ती है, जिससे बॉस आपके प्रतिद्वंद्वी को छोड़ बस आपको ही अपना खास मानने लगे। राजनीतिक दल अधिकतर जनता के साथ इस प्रकार की राजनीति करते रहते हैं। दबाव की राजनीति: आफिस में कोई अगर आपसे बेहतर काम करने वाला आ जाए तो यह राजनीति आपके लिए कारगर साबित हो सकती है। अपने प्रतिद्वंद्वी पर काम का इतना दबाव डाल दो कि वह अपनी प्रतिभा दिखाई न पाए और आपका रास्ता प्रस्सत हो जाए।अवसरवादी राजनीति: यह राजनीति हमेशा रामबाण साबित हुई है। बस आपको अपने दुश्मन की एक बड़ी गलती का इंतजार करना रहता है और सारे पत्ते आपके हाथ में। इस राजनीति के प्रहार से न जाने कितने मंत्रियों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी, न जाने कितनी सासों को अपने घर की चाबी अपनी बहुओं को देनी पड़ी।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

शोक व्यक्तम समिति

नेताजी परेशान थे। लगातार हो रहे बम विस्फोटों, नक्सलियोें के हमलों, मंदिरों में भगदड़ से उठे मौत के तूफान ने उनकी कुर्सी को हिलाना शुरू कर दिया था। बार-बार की घटनाओं पर जांच का आश्वासन दे-दे कर थक चुके नेताजी अपनी कुर्सी पर चिपक कर बैठे थे। आदत से मजबूर मैं उनके हाल-चाल जानने पहुंच गया। मैंने देखा कि नेताजी कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सो गए थे। सपना देखते-देखते चिल्ला रहे थे कि ”मुझे बड़ा दुःख है। तुरंत सहायता दी जाएगी.....“ नेताजी की ऐसी हालत देख मुझसे रहा नहीं गया। मैने उन्हें उठाया और कहा कि क्या हुआ नेताजी। चौंककर उठे नेताजी मुझे देखते ही बड़बड़ाने लगे-”घटना की जांच कराई जाएगी, दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा....” नेताजी का बयान सुन मैने उन्हें जैसे-तैसे शांत कराया। होश में आते ही नेताजी बोले-ओह तुम। अब तो सपने में भी बम धमाके सुनाई-दिखाई देते हैं। नेताजी का दुख मैं समझ रहा था।अपना दुख व्यक्त करते हुए वे बोले-क्या बताउं जब से यह बम धमाके, नक्सलियों के हमले होने लगे हैं, तब से विपक्षियों के हाथ मुद्दे आ गए हैं। आतंकवादी भी विस्फोट पर विस्फोट किए जा रहे हैं। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं। बिना कोई हरकत किए मैंने इतने साल बिता दिए। अब ये आतंकवादी बार-बार उल्टे, सीधे बयान देने को मजबूर कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल से कोई पद मिला है। न जाने कितने पापड़ बेले, तब कहीं जाकर मंत्रालय के गेट पर एंट्री हो पाई। अब इन आतंकवादियों को कौन समझाए। लगता है ये आतंकवादी मेरा इस्तीफा दिलवाकर ही मानेंगे। इनका क्या है एक विस्फोट कर दिया और गायब। बाद में जिम्मेदारी भी ले ली। हम कैसे लें जिम्मेदारी। एक मामले को जैसे-तैसे निपटाता हूं तो दूसरा विस्फोट हो जाता है। नेताजी जी की हालत एकदम देवदास की तरह हो गई थी। मैंने उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा-शांत हो जाइये नेताजी। ऐसा तो होता ही रहता है और वैसे भी हमारी जनता बहुत भुलक्कड़ है। सभी को शार्ट टाइम मेमोरी लॉस का लोचा है। कुछ दिनों बाद सब भूल जाएगी और अपने लिए रोटी, कपड़ा, मकान की जुगाड़ में लग जाएगी। आपको सिर्फ हादसों के समय बस कुछ देर जनता को सांत्वना देने की जरूरत है। अपने कुटिल चेहरे पर दो आंसू बहाकर बस शोक व्यक्त करने की जरूरत है। मेरे बातें सुनकर नेताजी की खोपड़ी ठनकी। बोले-बात तो तुम सही कह रहे हो। लेकिन ऐसे मौकों पर तो इन आंखों से आंसू निकलते ही नहीं हैं। बहुत कोशिश की पर क्या करें। ऊपर से ये मीडिया वाले अपने-अपने माइक हमारे मुंह में घुसेड़ देते हैं और बाद में पूछते हैं कि बताइये आपको कैसा लग रहा है? वो क्या कहते हैं कोई इमपरेसन ही नहीं आ पाता है। नेताजी की बात को समझते हुए मैंने उन्हें आइडिया दिया-क्यों न आप इसके लिए एक समिति का गठन कर दें। चेहरे के इमप्रेशन के लिए किसी अभिनेता को अपाइंट कर दें। इसी बहाने अभिनेता से नेता बने कार्यकर्ताओं को भी काम मिल जाएगा। नेताजी थोड़ा खुश हुए और बोले-ये अपना नवजोत सिंह सिद्धू कैसा रहेगा। ये तो क्रिकेटर भी रह चुका है। सुना है कि इसका शो भी बहुत अच्छा चल रहा था। मैंने नेताजी की बुद्धि को लानत देते हुए कहा-अरे ऐसा मत कीजिएगा। वो तो हमेशा हंसता रहता है। अपने शो लाफ्टर चैलेंज में भी बिना जोक के हंसता है और बीच-बीच में मुहावरे सुनाने लगता है। इस काम के लिए तो महिला कार्यकर्ताएं बिल्कुल फिट बैठेंगी। उदाहरण के तौर पर अब अभिनेत्री जया प्रदा को ही देख लीजिए रामपुर में सारे पार्टी कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद वे अपने चेहरे के दुखी इमप्रेशन की वजह से ही जीत गईं। आपको समिति में ऐसी अभिनेत्रियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। उनके चेहरे के भावों को देख लोग आलू, प्याज के बढ़ते भावों को भी भूल जाएंगे। नेताजी ने फिर अपनी असमंजसता जाहिर की-वो सब ठीक है। लेकिन इस समिति का शुभारंभ कब करूं। मैने अपने दिमाग पर जोर डालकर फिर आइडिया दिया-आप 15 अगस्त से इस समिति की शुरूआत क्यों नहीं करते? वैसे भी आपको इस दिन शहीदों की याद में मगरमच्छ के आंसू तो बहाने ही पड़ते हैं। मेरा आइडिया सुन नेताजी कुर्सी से उछल पड़े और बोले-वॉट एन आइडिया सर जी। बहुत अच्छा। तुम सही कह रहे हो। वैसे भी हर बार वही पुराने रटे-रटाए भाषण दे-देकर थक चुका हंू। अब तो महात्मा गांधी जी के अलावा किसी का नाम भी याद नहीं रह गया है। पिछली बार किसी मीडिया वाले ने राष्ट्र गान सुनाने को कह दिया तो वह भी ध्यान से उतर गया। अब तमाम झंझटों से छुटकारा मिल जाएगा। मैं तुरंत ही ऐसी “शोक व्यक्तम् समिति” गठित करता हूं। आइडिया पाकर नेताजी ने तुरंत पार्टी कार्यकर्ताओं की मीटिंग बुलाई। शोक व्यक्तम समिति की रूपरेखा तय की गयी। समिति के बजट में हर महीने दो कुंतल प्याज देने का प्रस्ताव पारित किया गया, जिससे समिति के अध्यक्ष को इमप्रेशन व्यक्त करने में बिल्कुल तकलीफ न हो। अभिनेता और अभिनेत्रियों का साथ देने के लिए कुछ रूदालियों का भी चयन किया गया। इस बार के स्वतंत्रता दिवस में शहीदों और महापुरूषों की यादें तो नहीं थीं। थे तो बस मगरमच्छ के झूठे आंसू।